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डराती है रवीश कुमार की पत्रकारिता, उन्हें भी, जो सत्तासीन हैं...
रवीश कुमार को पत्रकार कहना उसकी बहुत संकुचित व्याख्या करना होगा. वह सबसे बढ़कर एक किस्सागो है, यानी आधुनिक युग का चारण या कवि.
टेलीविज़न का समय एक ही दिशा में चलता है. अब, यह सामान्य ज्ञान है कि समय तो इसी तरह चलता है, लेकिन जब हम कुछ पढ़ते हैं, हम कुछ शब्दों या अनुच्छेदों को छोड़ सकते हैं, ताकि दोबारा आकर, बाद में उन्हें फिर पढ़ और समझ सकें. यह अतीत को लौटा लाने जैसा है, लेकिन LIVE न्यूज़ असली वक्त में ही घटती है, इसे लौटाया नहीं जा सकता. और अगर आपने देखने वाले को बीच में कहीं खो दिया, तो वह हमेशा के लिए खो जाता है.
रवीश ने इस सच को पहचान लिया, और किस्सागोई सरीखा अनूठा तरीका अपनाया, क्योंकि किस्से देखने वालों को किस्से के साथ-साथ बांधे चलते हैं. उन्हें याद करना आसान होता है, खासतौर से हमारे जैसे मुल्क में, जहां बहुत बड़ी तादाद लगभग निरक्षर लोगों की है. रवीश की भाषा और हावभाव में वे सभी तरकीबें समाहित दिखती हैं, जो स्थापित उपन्यासकारों से लेकर फिल्मकार और लोककलाकार तक अपनाते रहे हैं. वह अपनी भाषा को बिना किसी दिक्कत के संभ्रांत लोगों की भाषा से तुरंत गली में घूमने वाले फेरीवाले की भाषा बना लिया करते हैं.
लेकिन सिर्फ होशियार किस्सागो होना ही रवीश को वहां नहीं पहुचा सकता था, जहां आज वह हैं. पत्रकारिता की अपनी छवि यह है कि वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाती है. वह सरकार, राज्यीय संस्थानों, अर्थव्यवस्था, राजनेताओं तथा जानी-मानी हस्तियों के बारे में जानकारी हासिल करती है, और लोगों तक पहुंचाती है. न्यूज़ मीडिया सूचना के ज़रिये नागरिकों को सशक्त बनाती है, ताकि वे सत्ता में बैठे लोगों द्वारा किए जा रहे संभावित अतिक्रमण को रोक सकें. पत्रकारों का मानना है कि सच्चाई बताने का तरीका निष्पक्ष और संतुलित होना चाहिए, और ऐसा करने का परम्परागत तरीका ख़बर में मौजूद दोनों पक्षों की आवाज़ को बराबरी का मौका देना होता है.
रवीश कुमार ने जानबूझकर इस परम्परागत तरीके को छोड़ दिया. वह उन लोगों का किस्सा सामने लाना चाहते थे, जिनका कोई नाम ही नहीं - मज़दूर, बेघर विधवा, किसी गांव के स्कूल में मिड-डे मील का इंतज़ार करते बच्चे, कसाई, बेकरी वाला या मोमबत्तियां बनाने वाला. और रवीश चाहते थे कि इन लोगों का भी कोई नाम हो, पहचान हो, क्योंकि उनका रोज़ाना किया जाने वाला संघर्ष भी लोकतंत्र के लिए उतना ही अहम है, जितना संसद में पेश किए जा रहे नए विधेयक होते हैं. रवीश ने इन अदृश्य लोगों को हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में दिखाया. रवीश जानते हैं कि इन लोगों के किस्सों को 'संतुलित' तरीके से नहीं दिखाया जा सकता, क्योंकि सत्ता में बैठे लोगों की तुलना में इन लोगों का कोई वज़न ही नहीं है. शक्तिहीनों की सच्चाई को तभी सामने लाया जा सकता है, जब उन्हें एकतरफा आवाज़ दी जाए.
टेलीविज़न की दुनिया में मौजूद शेष पत्रकारों से रवीश कुमार को अलग करने वाला तीसरा अहम पहलू यह है कि वह शिक्षा शोध के क्षेत्र में लगातार हो रही गतिविधियों और विकास पर करीबी नज़र रखते हैं. वह हर रोज़ कठिन और जटिल शोधकार्यों को पढ़ते हैं, सिर्फ अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए नहीं, लेकिन उन्हें आम आदमी की भाषा में आम आदमी को समझाने के लिए भी. यह एक बेहद काम है, जो भारतीय टेलीविज़न पर लगभग कोई भी अन्य पत्रकार नहीं करता है. शिक्षाविद नए विचारों पर काम करते हैं, और दुनिया को देखने के नए तरीके तलाशते हैं. नई शोध अक्सर आमतौर पर प्रटलित मान्यताओं को नकारा जाता है, लेकिन शिक्षा की बंद दुनिया ने अपनी तकनीकी भाषा विकसित कर ली है, जिसे समझना गैर-प्रशिक्षितों के बस की बात नहीं है. इन नई शोधों को जनता के सामने लाने का बेहद अहम काम रवीश कुमार करते हैं.
अपने करियर के काफी बड़े हिस्से ते दौरान रवीश भारतीय टीवी के समाचार दर्शकों के लिए नायक रहे हैं. उनके साथ कहीं भी जाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि प्रशंसकों की भीड़ कहीं भी घेर लेती है, लोग उनसे हाथ मिलाने, या उनके साथ सेल्फी लेने की कोशिश करते रहते हैं. लेकिन लम्बे अरसे तक उनके साथी पत्रकारों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. वे रवीश को 'ऑफबीट' पत्रकार मानते थे, जिसे 'हार्ड न्यूज़' की समझ ही नहीं है. रवीश इन साथियों को 'लुटियन्स पत्रकार' कहते रहे - वे पत्रकार, जिसकी समझ से ख़बरों का सिर्फ एक ही उचित और वैध विषय होता है - सत्ता के गलियारे.
फिर भी, तथाकथित पत्रकारों से कभी न घबराने वाले सत्तासीन लोग रवीश कुमार के 'ऑफबीट' किस्सों से ही परेशान हुए. रवीश कुमार ने सच बोलकर जनता की नब्ज़ पकड़ ली, और बताया कि सत्ता दरअसल किस तरह काम कर रही है. इन ख़बरों ने रवीश कुमार को उन लोगों का चहेता बना दिया, जो सरकार से नाखुश थे. वर्ष 2011 से 2014 के बीच तो ऐसा सचमुच कुछ ज़्यादा हुआ, जब रवीश कुमार UPA सरकार की अहम योजनाओं की नाकामी को उजागर कर रहे थे.
माहौल तब बदला, जब UPA का पतन हो गा. सोशल मीडिया पर रवीश कुमार की तारीफों के पुल बांधने वाले लोग ही उन्हें राष्ट्रविरोधी कहने लगे, क्योंकि अब रवीश उस सरकार से सवाल कर रहे थे, जिनका समर्थन वे लोग कर रहे थे. इसकी शुरुआत गाली-गलौज और ट्रोलिंग से हुई, लेकिन जल्द ही वह फोन पर गालियां देने में तब्दील हुई, और फिर खुलेआम जान से मार डालने की धमकियां दी जाने लगीं, सिर्फ रवीश को नहीं, उनके परिवार को भी.
कोई भी होता, तो वह दबाव में झुक गया होता, अपना रुख नर्म कर लिया होता, या सब कुछ छोड़-छाड़कर किनारे बैठ गया होता, लेकिन रवीश ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने डटकर सामना किया, और हर रात दिखने वाला अपना शो 'विरोध की आवाज़' के तौर पर लगातार चलाते रहे. फर्क सिर्फ इतना था कि अब वह अकेली आवाज़ थे. इसके अलावा हर जगह, टेलीविज़न न्यूज़ सरकार के ही किसी विभाग का हिस्सा सरीखा बन चुकी थी. इस कठिन समय में भी रवीश कुमार ने संघर्षों और विद्रोह के किस्से सुनाना जारी रखा है. वह आज कमज़ोर का हथियार हैं.
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